इसलिए की जाती है भगवान की आरती

Tuesday, May 18, 2010

आरती प्रभु आराधना का एक अनन्य भाव है। हम भगवान को अभिषेक, पूजन और नेवैद्य से मनाते है, अंत में अपनी श्रद्धा, भक्ति और प्रभुप्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आर्त भाव यानी भावविभोर होकर और व्याकुलता से जो पूजा करते हैं, उसे आरती कहते हैं। आरती, आर्त भाव से ही होती है। इसमें संगीत की स्वरलहरियां और पवित्र वाद्यों के नाद से भगवान की आराधना की जाती है।

मूलत: आरती शब्दों और गीत से नहीं, भावों से की जाने वाली पूजा है। पूजा के बाद आरती करने का महत्व इसलिए भी है कि यह भगवान के उस उपकार के प्रति आभार है जो उसने हमारी पूजा स्वीकार कर किया और उन गलतियों के लिए क्षमा आराधना भी है जो हमसे पूजा के दौरान हुई हों। आरती से हम भगवान का आभार तो मानते ही हैं साथ ही उन सभी जानी-अनजानी भूलों के लिए क्षमा प्रार्थना भी करते हैं। इसलिए आरती का भाव आर्त माना गया है। आरती भावनाओं की अभिव्यक्ति तो है ही साथ ही इसमें संपूर्ण सृष्टि का सार और विज्ञान भी है। आरती के प्रारंभ में शंखनाद, फिर चंवर डुलाना, कर्पूर और धूप से भगवान की आरती करना, जल से उसे शीतल करना और फिर विभिन्न मुद्राओं से आरती ग्रहण करना, यह सब परमात्मा द्वारा रची गई सृष्टि के प्रति अपने आभार और उसके वैभव का प्रतीक है। इस विज्ञान को हम समझें तो यह सृष्टि पंचतत्वों से मिलकर बनी है। आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी। इन पंचतत्वों से हम भगवान को पूजते हैं, इस सृष्टि को रचने, उसमें सब सुख-संपदा देने और हमें मानव जीवन देकर इसे भोगने के उपकार के प्रति हम भगवान का धन्यवाद करते हैं और उसके (भगवान के) निकट रहने, उसकी कृपा में रहने के लिए आर्त भाव से प्रार्थना करते हैं।

शंख, आकाश का प्रतीक है। शुभ कार्यों के लिए शंख का नाद आवश्यक है और जब बात अपने आराध्य की पूजा की हो तो शंखनाद और ज्यादा आवश्यक हो जाता है। शंख नाद से माहौल भक्तिमय तो होता ही है साथ ही वातावरण में एक सकारात्मक ऊर्जा का भी संचार होता है। शंख नाद से आकाश तत्व के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। वायु तत्व की अभिव्यक्ति के लिए हम भगवान को चंवर डुलाते हैं। जिस शीतल प्राणवायु से हमारे शरीर में जीवन का संचार है, उसके लिए भगवान को चंवर डुला कर इसका धन्यवाद प्रेषित किया जाता है। इसे भगवान की सुश्रुषा करना भी कहते हैं और हम भगवान को स्वामी मानकर उसके सेवक रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हैं। जब हम भगवान की सेवा सेवक भाव से करते हैं तो इससे हमारे अहंकार का भी नाश होता है और मन निर्मल होता जाता है। प्रतिमाओं की सेवा हमें प्राणी सेवा के लिए भी प्रेरित करती है और हमारे मन में स्वत: मानव सेवा का भाव आने लगता है। कर्पूर और धूप, साक्षात अग्रि के रूप हैं। अग्रि पवित्रता, प्रकाश का प्रतीक भी है और संहार का भी। हम अपने दुर्गुणों को जलाकर सद्गुणों से भगवान को भजते हैं। उससे यह प्रार्थना भी करते हैं कि हमारा जीवन सदैव अंधेरे से प्रकाश की ओर आगे बढ़े। हमारे दुर्गुणों और अहंकार का सदैव क्षरण हो, सद्भाव और सदाचार के पथ पर हमेशा, भगवान की कृपा रूपी रोशनी मिलती रहे। अग्रि बुरी आदतों, अभिमान और दुव्र्यसनों को तो जलाती ही है, बुरी नजर भी जला देती है। एक सच्चा सेवक अपने स्वामी को बुरी नजर से बचाने के लिए भी अग्रि से उसकी नजर उतारता है। वैसे ही हम भगवान के इस सौम्य रूप को कुदृष्टि से बचाने के लिए उसकी आरती उतारते हैं। अग्रि का ताप बढ़े और प्रभु के सौम्य रूप को उससे कष्ट हो तो इसके लिए हम अग्रि को शीतल जल से शांत करते हैं। सृष्टि में जल सर्वाेपरि है, इसी से जीवन की उत्पत्ति भी मानी गई है। वेदों ने जल को ब्रह्म माना है। जिस तरह जल के संपर्क में आते ही हमारी गंदगी धुल जाती है, उसी तरह ब्रह्म यानी परमात्मा संपर्क में आने से हमारे पाप भी स्वत: धुल जाते हैं। जल जीवन का ताप मिटाता है और परमात्मा भी। भूमि तत्व को साधन अपने हाथों की अंगुलियों और अंगुष्ठ की विभिन्न मुद्राओं के जरिए दर्शाता है। हम भूमि को नमन करते हैं, क्योंकि भूमि हमें सहनशीलता सिखाती है। जीवन का सबसे बड़ा गुण आश्रितों को सहारा देना होता है। पृथ्वी अपने पर निवास करने वाले हर प्राणी को पूरे प्रेम से रखती है। ऐसे ही हमें हर आश्रित, शरणागत के प्रति स्नेह रखना चाहिए। पृथ्वी का यही गुण है। आरती, केवल एक पूजा पद्धति या प्रक्रिया नहीं, वरन संपूर्ण सृष्टि का सार है। भगवान के प्रति हमारा यह भाव है कि आपने अमूल्य जीवन हमें दिया, हम सेवकों के लिए इस सुंदर सृष्टि की रचना की और हमें अपने निकट आने का अवसर दिया। ऐसी कृपा हम पर सदैव बनाए रखिएगा।

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