नन्ही किरण

Saturday, January 30, 2010



आज आपसे सिर्फ मैं अपनी बात नहीं करना चाहता,पर साथ ही साथ एक छोटी सी बच्ची,जिसका नाम किरण है,उसकी वो बातें भी आपसे share करना चाहता हूँ,जो की उसने मुझसे और शायद आप में से भी किसी से की होगी,पर हो सकता है की किसी ने उसकी बातों को,तवज्जोह नहीं दी हो,ऐसी बातें जो सब जानते हैं,पर फिर भी हम एक बार फिर से सुनेंगे "किरण" के दृष्टिकोण से।

किरण एक मासूम से प्यारी सी बच्ची है,जिसका एक भरा पूरा परिवार है,माता-पिता है,दादा-दादी हैं,और एक बादइ बहिन भी है। किरण इनके पास होने के अनुभव से ही चहक उठती है,और इनसे बातें करने,इन्हें जानने को छट पटाती है,पर वो ऐसा कर पाती इस से पहले ही माँ के गर्भ में उसकी जान ले ली गयी.कन्या-भ्रूण हत्या की एक और शिकार बनी-नन्ही किरण।

यह कहानी सिर्फ किरण की ही नहीं,बल्कि उसके जैसी न जाने कितनी मासूम बच्चियों की होगी,जिनके जीवन में रोशनी होने से पहले ही अँधेरा छा जाता है। और इस अँधेरे के ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हम लोग ही हैं-पढ़े लिखे मगर गँवारों और जाहिलों की सोच रखने वाले।

यूँ तो ६० साल हो गए हैं आज़ादी मिले मगर आज भी हमारी सोच में ६०% तक का भी इजाफा नहीं हुआ है। आज भी कई घरों में बेटियाँ बोझ समझी जाती है। या तो उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है,या फिर पैदा होने के बाद वोह बेचारी ज़िन्दगी भर अपने मूल हकों के लिए लडती रहती है। और ऐसा सिर्फ गाँव या छोटे कस्बों में नहीं अपितु कई महानगरों में भी होता है।

हम एक पल भी नहीं लगते यह सोचने में की जिस नन्ही सी जान को हम कष्ट दे रहे हैं,वोह हमारा ही अंश है,इश्वर का अनमोल तोहफा है हमारे लिए जिसकी हम एकतरफ तो तौहीन करते हैं और दूसरी तरफ धार्मिक होने का नाटक भी नहीं छोड़ते और उसी नारी को मंदिर में बैठा , उसी को पूजते भी हैं। मगर शायद यह भूल जाते हैं की इतना जघन्य अपराध करने वालों की फ़रियाद तो इश्वर भी खारिज कर देता है।

ऐसे मामलों में माँ-बाप के अलावा वो डॉक्टर भी दोषी होते हैं,जो प्रसव-पूर्व बच्चे का लिंग पता करवाने में उनकी मदद करते हैं। चाहे कानून कितने भी सख्त क्यूँ ना बना लिए जाएँ पर यह भी सच है की उन्हें तोड़ने वाले हर जगह मिल ही जाते हैं। यह वो लोग हैं जिन्हें इश्वर का खौफ ही नहीं रोक पाया,तो कानून (जो मानव द्वारा निर्मित है) वोह भला कैसे और आखिर कब तक रोक पायेगा?

ज़रा सोचिये की अगर धरती से लडकियां ही ख़त्म हो गयी तो हमारा वंश आगे कैसे बढेगा,प्रजनन प्रक्रिया रुक जायेगी और हमारे लड़कों के लिए बहुएं ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगी। क्या ऐसी भयानक वास्तविकता का सामना कोई करना चाहेगा? शायद कोई भी नहीं। तो फिर हम ऐसी स्तिथियाँ उत्पन्न ही क्यूँ करना चाहते हैं जो विकराल रूप लेकर हमें ही खा जाएँ।

कितना आसान होता है किसी अजन्मे बच्चे की जान लेना,पर अगर कभी हमारे साथ ऐसा हुआ होता,तो हमें उस दर्द का एहसास होता,अगर हमारे घरवालों ने भी हमें गर्भ में ही मरवा दिया होता,तो हमें उस तकलीफ का एहसास होता जो माँ और बच्चे दोनों को झेलना पढ़ती है,जिसमें एक माँ बेचारी तो औसतन हमेशा ही सामाजिक और पारिवारिक दबाव के चलते ही इतनी घिनौनी साज़िश का हिस्सा बन जाती है।

ऊपर लिखी एक भी बात नयी या अनजानी नहीं है। कई लोग,कई समाजसेवी संगठन ऐसी बातें रोजाना कहते हैं मगर जब तक हम मन से इन बातों को सोच-समझ कर अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक ऐसी बातें लगातार होती रहेंगी और हम इनसे छुटकारा नहीं पा सकेंगे। अगर ऐसी नश्तर सी चुभती हकीकत का सामना नहीं करना है तो मत पैदा होने से रोकिये अपने आस-पास स्थित किसी भी जगह पर, किसी भी "किरण" को और इस मुहीम को एक जन-आन्दोलन का रूप दीजिये क्यूंकि ऐसी ही कोई "किरण" कल की "किरण बेदी" बनकर ना केवल अपने परिवार,अपने कुल का बलिक पूरे देश का नाम रोशन कर सकती है।

वाकई में "बेटियों का जवाब नहीं।"

तारीख:-२१-०४-२००७

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