एक कविता....

Wednesday, June 8, 2011




एक दिन जब शाम ढल रही थी,
मैं छत की मुंडेर पर बैठा हुआ था,
देख रहा था,घोंसलों में वापस जाते पंछियों को,
देख रहा था पवन के संग झूमती बदलियों को,
सोच रहा था की कैसा हसीं था वो लम्हा,वो पल,
जब साथ तुम मेरे थीं,और रात थी बोझिल,
उस सामान को भी तुमने बहारों सा हसीं बना दिया,
एक बार जो तुम मुस्कुराए तो सारा आलम शर्मा गया
मैं देखता रहा तुम्हे उस रात की तन्हाई में,
मैं सोचता रहा तुम्हे अपने दिल की गहराई में,
तब होश आया मानो मुझे नींद से,
जब हवा में उड़ता तेरा आँचल,मेरी साँसों को महका गया,
तुम बोलती रहीं और होठों से फूल झरते रहे,
और मैं माली की तरह उन फूलों को माला में पिरोता रहा,
ये रूप तुम्हारा,ये देह तुम्हारी,
जैसे हो तुम अप्सरा कोई स्वर्ग की,
हूँ खुशनसीब मैं कितना कि प्यार मिला है मुझे तुम्हारा ज़िन्दगी में,
पर रेत के घरोंदे कि तरह उजाड़ गया वो ख्वाब एक ही पल में,
जब दूर हो गयीं तुम मुझसे इस दुनिया कि भीड़ में,
आज भी रात भर जागता हुआ मैं सोचता हूँ तुम्हारे ही बारे में,
बैठा रहता हूँ छत कि मुंडेर पर शाम ढलने पर,
देखता रहता हूँ घोंसलों में वापस जाते पंछियों को,
देखता रहता हूँ पवन के संग झूमती बदलियों को

कवि:-मोहित कुमार जैन
(२००६)

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