मंजिल सफ़र में है

Tuesday, November 1, 2011

चल रहा हूँ बस चुपचाप चल रहा हूँ,
थका नहीं,रुका नहीं बस चल रहा हूँ,
दूर किसी क्षितिज सा दीखता रहता है मेरा सुख,
जब भी जितना भी उसके करीब होता हूँ,
वो फिर उतना ही दूर होता जाता है,
अब तो आलम ये है की ये भी पता नहीं,
किसके किता करीब और अपने से कितना दूर हो गया हूँ,
जल रहा हूँ,पिघल रहा हूँ फिर भी बस चल रहा हूँ,
कहते हैं कश्ती पानी में नहीं,पानी कश्ती में है,
मैं कहता हूँ मैं सफ़र में नहीं,मंजिल सफ़र में है,
चल रहा हूँ धीमे-तेज़,जैसे भी चल रहा हूँ,
थका नहीं रुका नहीं बस चल रहा हूँ....

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