भोपाल में ढूंढ़े सात अजूबे

Friday, February 4, 2011

के लेखक और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के एडवाइजर सैय्यद अख्तर हुसैन ने भोपाल में ऐसे ही सात अजूबे खोज निकाले हैं। सैय्यद अख्तर ने वर्षो भोपाल और आसपास की ऐतिहासिक इमारतों पर शोध किया और लेखन के जरिए उन्हें उजागर किया। आइए जानें क्या हैं उनकी नजर में भोपाल के सात अजूबे-


पहला अजूबा ताजुल मसाजिद
ताजुल मसाजिद का क्षेत्रफल 1 लाख 70हजार वर्ग फीट दर्ज है। सच्चई यह है कि इतना हिस्सा केवल उसके आंगन का है। यदि वुजू करने की जगह यानी मोतिया तालाब का 6 लाख 40 हजार वर्ग फीट क्षेत्र इसमें जोड़ा जाए तो दुनियाभर में (मक्का और मदीना को छोड़कर) इतनी बड़ी मस्जिद नहीं मिलेगी।

दूसरा अजूबा ढाई सीढ़ी की मस्जिद
ये मस्जिद दुनिया की सबसे छोटी मस्जिद है। फिलहाल गांधी मेडिकल कॉलेज के परिसर में मौजूद इस मस्जिद में एक बार में बमुश्किल तीन लोग नमाज पढ़ सकते हैं।

तीसरा अजूबा भोजपुर का शिवलिंग
आठ फीट ऊंचा शिवलिंग दस फीट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। एक ही पत्थर से इतना ऊंचा शिवलिंग पूरे विश्व में कहीं नहीं है।

चौथा अजूबा तीन सीढ़ीदार तालाब
मोतिया तालाब बनाने के बाद उसके समानांतर थोड़े नीचे की तरफ सिद्दीक हसन खां तालाब बनाया गया। मकसद ये था, मोतिया तालाब में पानी ज्यादा भर जाए, तो उसका पानी इस तालाब में इकट्ठा हो सके। इसी तरह एक लेवल नीचे और एक तालाब बना जिसका नाम है मुंशी हुसैन खां तालाब। अख्तर हुसैन साहब का दावा है कि दुनिया में तीन सीढ़ीदार तालाब कहीं पर भी मौजूद नहीं है।

पांचवा अजूबा तीन सीढ़ीदार मस्जिद
ताजुल मसाजिद की 75 सीढ़ियां उतरते ही ठेले वाली सड़क पर 40 कदम चलकर 32 सीढ़ी उतरते ही नूर महल की मस्जिद आ जाती है। यहां से निकलर साढ़े चौदह सीढ़ी उतरने के बाद 150 कदम चलने पर लाल मस्जिद आ जाती है। दुनिया में इस तरह से तीन सीढ़ीदार मस्जिद कहीं पर भी नहीं बनी हैं।

छठा अजूबा 36 महिलाओं ने बनवाई मस्जिदें
भोपाल एकमात्र ऐसा शहर है जहां पर 36 महिलाओं ने मस्जिदें बनवाई हैं। इनमें से चार महिलाएं बहुत ही गरीब थीं।

सातवां अजूबा भोपाल की मेहमान नवाजी
रायसेन-सागर रोड पर रायसेन से लगभग 20 किमी आगे चलकर एक ऐसा चूल्हा है, जो पिछले १क्५ साल से लगातार जल रहा है। मिर्जा आबिद हुसैन खां साहब जब वहां पर आकर बसे तो उस जगह को खान का डेरा कहा गया। बाद में यह जगह खंडेरा के नाम से मशहूर हुई। मिर्जा साहब ने यहां मुसाफिरों के ठहरने के लिए न केवल कमरे बनवाए बल्कि वहां पर चूल्हा बनाया, ताकि उन्हें खाना मिल सके। उनके खानदान ने यह सिलसिला आज भी कायम रखा है।

Source:Dainik Bhaskar(07-02-2010)

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