अमावास की काली रातों में दिल कुछ भर सा जाता है
जाने हर रात कलेजे में एक दर्द ठहर सा जाता है
आवाजें सब चुप रहती हैं, सन्नाटे चिल्लाते हैं
रोशनदानो के रस्ते अन्दर, स्याह अँधेरे आते हैं
तन्हाई का हर लम्हा, सदियों सा लम्बा लगता है
जिन्दा हूँ पर जीने का, एहसास अचम्भा लगता है
ऐसे में फिर यादों में वो, पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
अब तो जाने क्या होता है हर आहट से डरते हैं
खिड़की ,दरवाजे, छत, बिस्तर उपहास हमारा करते हैं
लिखने बैठू तो कविता के सब शब्द ख़तम हो जाते हैं
कलम चलाने से पहले ही कागज़ नम हो जाते हैं
घर का कोई काम नहीं जचता, न कारोबार सुहाता है
बस समय काटने को पड़ोस का लल्ला पढने आता है
अब ऐसे ही दिन उगता है ,और ऐसे ही दिन कट जाता है
अब घर की चार दीवारों में संसार ख़तम हो जाता है
जब शाम कभी तन्हाई में ये आँखे नम हो जाती है
ऐसे में फिर यादों में वो, पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
अब तो अपनी हर रचना की शुरुआत उसी से करता हूँ
शब्दों ,छंदों के चित्रों में सब रंग उसी के भरता हूँ
अब तो बाबा, भाभी ,दीदी सब बोलन से घबराते हैं
अब तो हमसे बिन पूछे ही रिश्ते ठुकराए जाते हैं
अब तो हम घर की चौखट के बहार से भी कतराते हैं
अब तो भैया भी शहर छोड़कर गाँव मनाने आते हैं
जब दिल में जीवन जीने की इक्षाएं ख़तम हो जाती है
ऐसे में फिर यादों में वो पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
हलाकि अब उसका मेरा साथ असंभव लगता है
लेकिन उसके न होने का एहसास भी दिल को लगता है
वो पगली लड़की अब भी मेरी ग़ज़लो में बसती है
उसकी सूरत उसकी सीरत अब भी इस दिल में बसती है
अब भी उसकी बांधी हुई ताबीज गले में लटकी है
अब भी उसकी साँसों से मेरी साँसे अटकी है
अब भी जाने क्यों खुद अपना ,हर शब्द अनाड़ी लगता है
अब भी पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भरी लगता है .
जाने हर रात कलेजे में एक दर्द ठहर सा जाता है
आवाजें सब चुप रहती हैं, सन्नाटे चिल्लाते हैं
रोशनदानो के रस्ते अन्दर, स्याह अँधेरे आते हैं
तन्हाई का हर लम्हा, सदियों सा लम्बा लगता है
जिन्दा हूँ पर जीने का, एहसास अचम्भा लगता है
ऐसे में फिर यादों में वो, पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
अब तो जाने क्या होता है हर आहट से डरते हैं
खिड़की ,दरवाजे, छत, बिस्तर उपहास हमारा करते हैं
लिखने बैठू तो कविता के सब शब्द ख़तम हो जाते हैं
कलम चलाने से पहले ही कागज़ नम हो जाते हैं
घर का कोई काम नहीं जचता, न कारोबार सुहाता है
बस समय काटने को पड़ोस का लल्ला पढने आता है
अब ऐसे ही दिन उगता है ,और ऐसे ही दिन कट जाता है
अब घर की चार दीवारों में संसार ख़तम हो जाता है
जब शाम कभी तन्हाई में ये आँखे नम हो जाती है
ऐसे में फिर यादों में वो, पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
अब तो अपनी हर रचना की शुरुआत उसी से करता हूँ
शब्दों ,छंदों के चित्रों में सब रंग उसी के भरता हूँ
अब तो बाबा, भाभी ,दीदी सब बोलन से घबराते हैं
अब तो हमसे बिन पूछे ही रिश्ते ठुकराए जाते हैं
अब तो हम घर की चौखट के बहार से भी कतराते हैं
अब तो भैया भी शहर छोड़कर गाँव मनाने आते हैं
जब दिल में जीवन जीने की इक्षाएं ख़तम हो जाती है
ऐसे में फिर यादों में वो पगली लड़की आ जाती है
और उस पगली लड़की के बिन फिर वीरानी छा जाती है !!
हलाकि अब उसका मेरा साथ असंभव लगता है
लेकिन उसके न होने का एहसास भी दिल को लगता है
वो पगली लड़की अब भी मेरी ग़ज़लो में बसती है
उसकी सूरत उसकी सीरत अब भी इस दिल में बसती है
अब भी उसकी बांधी हुई ताबीज गले में लटकी है
अब भी उसकी साँसों से मेरी साँसे अटकी है
अब भी जाने क्यों खुद अपना ,हर शब्द अनाड़ी लगता है
अब भी पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भरी लगता है .
1 comments:
hello dost...
ye kumar vishwas ji ki rachna nahi balki meri rachna hai..kumar vishwas ji ki original poem aap unke web page par paa sakte hain..
or meri rachna ke liye mere blog pe visit karein http://kuchhapnikalamse.blogspot.com
rishu
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